रविवार, 13 नवंबर 2016

मां का काला धन


उथला-पुथला सारा घर है,
मां का काला धन बाहर है।
खाकर अक्सर आधा-थोड़ा,
अपनी इच्छा मार के जोड़ा,
वो धन भी अब उसका नहीं है,
वाकिफ उससे सारा घर है,
मां का काला धन बाहर है।
बेटी की शिक्षा की खातिर,
शादी का खर्चा है जाहिर,
सबके लिए था सोचा मां ने,
अब उसके बंटने का डर है,
मां का काला धन बाहर है।
गुस्सा उस पर पति शराबी,
खुश है उसका बेटा जुआरी,
और सरकार के प्रश्न भी होंगे,
उसके धन पर सबकी नजर है,
मां का काला धन बाहर है।
घर की मरम्मत भी करनी थी,
फीस डाक्टर की भरनी थी,
मायके में भी कुछ खर्चा था,
अब तो आगे कठिन डगर है,
मां का काला धन बाहर है।

शनिवार, 12 नवंबर 2016

जी का जंजाल

चित्र साभार - amarujala.com
इस हुकूमत में हमारा मुल्क ये बेहाल है,
जेब में पैसा है फिर भी आदमी कँगाल है. 
पैन, के वाई सी ,आधार,महंगाई, मौसम का कहर,
देश की जनता की खातिर हर तरह का जाल है.
हर कोई उलझा हुआ है,हर कोई बेचैन है,
एम पी ,यू पी ,दिल्ली चाहे,चाहे फिर बंगाल है. 
बस क़तारों में गुज़रती है हमारी सुबह-ओ-शाम,
किस जगह का नाम लूँ हर जगह ये हाल है. 
अब बिना आधार के होता नहीं है कोई काम,
हर तरफ आपात  है निर्बलों का  काल है.
क्या कहें उसको बताओ जो किसी की न सुने,
आदमी मानें उसे या मान लें बेताल है.
अच्छे दिन का देखकर सपना बनाया था मगर,
मोदी की सरकार यारों जी का बस  जंजाल है. 

रविवार, 14 अगस्त 2016

देखिए तो सही

बन के इंसान देखिए तो सही,
कौन शैतान देखिए तो सही.
हो के मोहताज हाथ फैलाकर,
अपनी पहचान देखिए तो सही.
खत्‍म कीजे ये मजहबी झगडे़,
देश की शान देखिए तो सही.
चन्‍द रूपयों पे डोल जाता है,
अपना ईमान देखिए तो सही.
दिल यकीनन सुकून पाएगा,
करके एहसान देखिए तो सही.
हौसला है तो कुछ कठिन भी नहीं,
सब है आसान देखिए तो सही.
‘राज’सच में कलामे-रब है यह,
पढ़ के कुरआन देखिए तो सही.

सोमवार, 28 मार्च 2016

वो तो बस गया है ख्याल में.

 वो तो बस गया है ख्याल में.
मैं उलझ गया हूँ सवाल में,
मेरी ज़िन्दगी है बवाल में.
मेरे दोस्त भी नहीं पूछते,
मैं कहाँ हूँ और किस हाल में.
किसी दौर में मेरा नाम भी,
कोई टांकता था रुमाल में.
उसे कैसे दिल से निकालूँ मैं,
वो तो बस गया है ख्याल में.
वही सुबह-शाम,वही काम-धाम,
के ज़माना है किसी जाल में.
हुआ खुदगरज कुछ यूँ आदमी,
रही रौशनी न मशाल में.
वो खज़ाना से नहीं मुतमइन
मैं तो खुश हूँ रोटी व दाल में.

सोमवार, 21 मार्च 2016

खुशबू बनकर

खुशबू बनकर
मैंने इस ग़म से कभी यार निकलना नहीं चाहा,
दो क़दम तूने मेरे साथ में चलना नहीं चाहा.
अपने जज्बात तेरे सामने रखकर अक्सर,
मैंने समझाया मगर तूने समझना नहीं चाहा,
दिल के हर गोशे में तस्वीर बसी है तेरी,
तेरी आँखों ने मेरे दिल में उतरना नहीं चाहा.
एक तो फितरत में तेरे प्यार का जज्बा कम था,
और मैंने भी कभी हद से गुजरना नहीं चाहा.
अपने रग-रग में बसा लेता उसे मैं यारों,
खुशबू बनकर कभी उसने ही बिखरना नहीं चाहा.
मैं तो रूठा ही था उसने भी मनाया न मुझे,
बात इतनी सी है,दोनों ने संवारना नहीं चाहा.