शनिवार, 18 मई 2019

चीखती तख्तियाँ

बीच रिश्तों के बस तल्खियाँ रह गईं,
जाल बुनती हुई मकड़ियाँ रह गईं।
हाथ फैलाए बच्चे अभी दिख रहे,
शहर में आज भी झुग्गियाँ रह गईं।
यूँ तरक़्क़ी दिखाई तो देती नहीं,
हाँ बजाने को कुछ डफलियाँ रह गईं।
बारी-बारी से मुर्ग़े सभी कट गए,
बनके अनजान सब मुर्गियाँ रह गईं।
कोई बकरों की हड्डी चबा भी गया,
मैं मैं करती हुई बकरियाँ रह गईं।
चुन के गुलशन से माली कली ले गया,
फूल को ढूंढती तितलियां रह गईं।
जिनके सर को मयस्सर नहीं एक छत,
उनके हिस्से में सब बिजलियां रह गईं।
हम सियासत के जाले में ऐसे फंसे,
भाई-चारा गया , बस्तियाँ रह गईं।
अब तरक़्क़ी की करता नहीं बात वो,
उसकी तक़रीर में धमकियाँ रह गईं।
मुल्क भर की हवा पुरतशद्दुद हुई,
गुल मोहब्बत की सब बत्तियाँ रह गईं।
पीकर ज़हरीली दारू कई मर गए,
फिर भी चलती हुई भट्टियाँ रह गईं।
ये ज़माने का दस्तूर भी है अज़ब,
हाशिये पर कई हस्तियाँ रह गईं।
जांच में खर्च इतना हुआ के मरीज,
बिन दवा मर गया,पर्चियाँ रह गईं।
राह इंसाफ की है बहुत ही कठिन,
अर्ज़ीवाला गया अर्ज़ियाँ रह गईं।
खुदग़रज़ लोग आकर गरज़ ले गए,
घर के आंगन बस अर्थियाँ रह गई।
बेटे माँ-बाप की खैर लेते नहीं,
घर की दहलीज़ पर बेटियाँ रह गईं।
अपने रहबर से उसने किया था सवाल,
जिस्म पर उसके बस पट्टियाँ रह गईं।
आज के दौर में लोग खामोश हैं,
चीखती-चाखती तख्तियाँ रह गईं।
बारी-बारी से सब रँग गुम हो गए,
ज़र्द रँग की थीं जो पत्तियाँ रह गईं।
छोड़ आए हैं बचपन वहीं माँ के पास,
"राज"खामोश  सब मस्तियाँ रह गईं।