चल रही है हवा
सियासत की,
कौन बातें करे मोहब्बत
की।
दोस्त सारे बदल गए
आखिर,
कुछ हवा ऐसी है
अदावत की।
बेअसर उन पे
आरजू-मिन्नत,
बात हो जाए अब बगावत
की।
दर्दे-इंसानियत से
खाली हैं,
बात करते हैं जो इबादत
की।
आम इंसां से दूर
रहते हैं,
दिल में ख्वाहिश है
पर इमामत की।
बात इंसाफ की न कर पाए,
क्या जरूरत है इस सहाफत की।
काम नाअहल पा रहे हैं अब,
क्या घड़ी आ गई कयामत की।
है गए दौर की मगर फिर भी,
बात हो जाए कुछ नजाकत की।
सबको मालूम है सवाब मगर,
किसको फुर्सत है अब अयादत की।
‘राज’तसलीम अब तो कर ही लो,
कद्र होती नहीं शराफत की।
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