गुरुवार, 15 जनवरी 2015

हवाओं में ज़हर.


ज़िन्दगी मेरी है यारों मुख़्तसर,
 आपकी मर्ज़ी बनायें रोज़ घर.
  आप चाहे लाख तदबीरें करें,
  लौट पायेगी नहीं गुजरी सहर.
  हमने उनके हर सितम हंसकर सहे,
  हम ही ठहराए गए मुजरिम मगर.
  आइए पौधे लगायें प्यार के,
  घुल गया है अब हवाओं में ज़हर.
   मज़हबो-फिरका में है जबसे बंटा,
   जल रहा है दोस्तों सारा शहर.

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